काबिल-ए-ऐतराज़ है मयकदे कि आफियत...होश में आने का बहाना दुरुस्त है....
क्यों बाट रहे हैं मुझे ज़न्नत का वह मंज़र....क्या मुझको पिलाने का इरादा दुरुस्त है....
.राहोएं में कत्ल-ए-आम है बहता लहू नही....हर दौर में आता हु...पुराना उसूल है.....
...आया है दर पै लॉट के...कागज़ का पुलिंदा....क्या सोच रहा है ज़माना दुरुस्त है......
Saturday, December 15, 2007
raqeeb
अहसान कुछ इस तरह जता कर चले गए....
कुछ लोग मुझे दर-ए-रकीब का बता कर चले गए..........
रहती नही है देर तक चिरागों से रौशनी.......
जो दिल कि ही आतिश वह जला कर चले गए.........
फैला फैला सा है आशना मेरा........
कुछ लोग तसव्वुर में जो आ कर चले गए.........
तस्फियाह तलब है मेरे होने के निशाँ......
तसादुफ़ में दर पै आप के आ कर चले गए.......
दीदा-ए-तर नही है मेरी बंज़र है निगाह........
अश्कोएँ से गिला क्या ....जो देहलीज पर आकर चले गए....
अहसान कुछ इस तरह जता कर चले गए....
कुछ लोग मुझे दर-ए-रकीब का बता कर चले गए....
कुछ लोग मुझे दर-ए-रकीब का बता कर चले गए..........
रहती नही है देर तक चिरागों से रौशनी.......
जो दिल कि ही आतिश वह जला कर चले गए.........
फैला फैला सा है आशना मेरा........
कुछ लोग तसव्वुर में जो आ कर चले गए.........
तस्फियाह तलब है मेरे होने के निशाँ......
तसादुफ़ में दर पै आप के आ कर चले गए.......
दीदा-ए-तर नही है मेरी बंज़र है निगाह........
अश्कोएँ से गिला क्या ....जो देहलीज पर आकर चले गए....
अहसान कुछ इस तरह जता कर चले गए....
कुछ लोग मुझे दर-ए-रकीब का बता कर चले गए....
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