....चाँद को देख कर ...तारे टिमटिमाते है......
...घडी से कूद क्रर ....लम्हे निकल जाते है......
....वोही दर है..वोही शाम....वोही मिजाज़.....वोही आतिश...
...लौट कर आयेंगे मुझसे बोल कर..... सब दोस्त चले जाते है.....
Thursday, December 31, 2009
Wednesday, December 30, 2009
Tuesday, December 29, 2009
tanhayi
.....में अपनी तन्हाई में समां बाँध लेता हु....कुछ देर रूकता हु कही तो यह जान लेता हु...
...वोह सोख सदी बीत गयी अपने से चमन की.....ज़माने से अपना भी कहा नाम लेता हु.....
.में अपनी तन्हाई में समां बाँध लेता हु....कुछ देर रूकता हु कही तो यह जान लेता हु...
...दर पर रही है गूँज तेरे देर तक फ़रियाद.....गुमनाम आवाजो में गुम है मेरी आवाज़.....
..में अपनी हथेली में जहा बाँध लेता हु....भूली हुई सदियों के निशाँ थाम लेता हु.....
.में अपनी तन्हाई में समां बाँध लेता हु....कुछ देर रूकता हु कही तो यह जान लेता हु.......
कहते है मुझसे लोग कातिल नहीं हु में ...वोह और था मंज़र तबियत अजीब थी......
...में अपने गुनाहों की सजा मीन लेता हु......में अपनी तन्हाई में समां बाँध लेता हु. ....
....कुछ देर रूकता हु कही तो यह जान लेता हु.....
daur
..ज़रा जज़्बात संभालो यारो....अभी कई दौर बाकी है ...
...दिल से दिल मिलते नहीं ...नज्रोएँ का काम बाकी है....
....उठ कर हम भी चल देते ....कोई अपना भी आशना होता....
.....चार दीवारों को कह देते घर.....अगर महफ़िल से दिल भरा होता........
.....फिर लौट के आया हु मयखाने में ........तनहा हु अभी......
.......किसी की याद में नहीं.......शौकिया लिख लेते है हम कभी-कभी........
...दिल से दिल मिलते नहीं ...नज्रोएँ का काम बाकी है....
....उठ कर हम भी चल देते ....कोई अपना भी आशना होता....
.....चार दीवारों को कह देते घर.....अगर महफ़िल से दिल भरा होता........
.....फिर लौट के आया हु मयखाने में ........तनहा हु अभी......
.......किसी की याद में नहीं.......शौकिया लिख लेते है हम कभी-कभी........
...zarrey
वक़्त के टूटे ज़र्रो से...में शीशे का जहा लाया हूँ ....
अश्को से गीली रेत पर ...कदमो के निशाँ लाया हूँ ...
याद नहीं जेब में ....कुछ पुर्जा सा बाकी है......
दीदे लाल है मेरे ....बंज़र है जुबां.......
क्या खूब थे वोह मयखाना लुटाने वाले ......कातिल के दीवाने ....वोह
महफ़िल को सजाने वाले ..... अपने बुढ़ापे में फिर लौट के घर आया हु.....
....अक्स कुछ अजीब है.....दर पर मेरे महबूब के.........
......फिर मौसम बदल गया ...चौखट पर उनको देख कर ........
याद नहीं जेब में ....कुछ पुर्जा सा बाकी है......
दीदे लाल है मेरे ....बंज़र है जुबां.......
क्या खूब थे वोह मयखाना लुटाने वाले ......कातिल के दीवाने ....वोह
महफ़िल को सजाने वाले ..... अपने बुढ़ापे में फिर लौट के घर आया हु.....
....अक्स कुछ अजीब है.....दर पर मेरे महबूब के.........
......फिर मौसम बदल गया ...चौखट पर उनको देख कर ........
वक़्त के टूटे ज़र्रो से...में शीशे का जहा लाया हूँ ....
अश्को से गीली रेत पर ...कदमो के निशाँ लाया हूँ ......
saahil
..यूं तो महफ़िल में है ...लोग हम से भी आब-दार .....
....फिर भी खामोश है समां ...माद्दा क्या है....
....काफिला सालार बना सागर का नशा......
.....ताबिंदा साहिल पर खड़ा....नाखुदा क्या है.....
....फिर भी खामोश है समां ...माद्दा क्या है....
....काफिला सालार बना सागर का नशा......
.....ताबिंदा साहिल पर खड़ा....नाखुदा क्या है.....
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