".....धुप के आँगन से वह किरणों के निशाँ ढूंढता है......
........नदियों की आवाजों से वह कुदरत की जुबान ढूंढता है ....
.......इंसान ने कायनात में बांधी है कुछ कमज़ोर लकीरे
...... क्या खुदा ज़न्नत में भी सरहद के निशाँ ढूंढता है........"
........नदियों की आवाजों से वह कुदरत की जुबान ढूंढता है ....
.......इंसान ने कायनात में बांधी है कुछ कमज़ोर लकीरे
...... क्या खुदा ज़न्नत में भी सरहद के निशाँ ढूंढता है........"
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